२०२३ पुरुषोत्तम सतोत्र

२०२३ पुरुषोत्तम सतोत्र

  • श्रीगुर्वष्टकम्
  • श्रीप्रभुपाद-पद्म-स्तवकः
  • श्रीषड-गोस्वाम्यष्टकम्‌
  • श्रीगदाधराष्टकम्‌
  • श्रीशचीशुन्वष्टकम्
  • श्रीराधिकाष्टकम्‌ (२)
  • श्रीजगन्नाथाष्टकम्
  • श्रीचौरग्रगण्य-पुरुषाष्टकम्
  • श्रीगुर्वष्टकम्

    श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर

    संसार-दावानल-लीढ़-लोक
    त्राणाय कारुण्यघनाघनत्वम् ।
    प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥१॥

    संसाररूपी-दावानलसे सन्तप्त लोगोंकी रक्षाके लिए जो करुणाके घने मेघस्वरूप होकर कृपावारि वर्षण करते हैं, मैं उन्हीं कल्याणगुणनिधि श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी वन्दना करता हूँ।

    महाप्रभोः कीर्त्तन-नृत्य-गीत
    वादित्रमाद्यन्मनसो रसेन ।
    रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरङ्ग-भाजो
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥२॥

    सङ्कीर्त्तन, नृत्य, गीत तथा वाद्यादिके द्वारा उन्मत्तचित्त श्रीमन्महाप्रभुके प्रेमरसमें जिनके रोमाञ्च, कम्प और अश्रु तरङ्ग उद्गत होते हैं, मैं उन्हीं श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी वन्दना करता हूँ।

    श्रीविग्रहाराधन-नित्य नाना
    शृङ्गार तन्मन्दिर-मार्ज्जनादौ ।
    युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥३॥

    जो श्रीभगवद्विग्रहकी नित्य-सेवा, शृङ्गाररसोद्दीपक तरह-तरहकी वेश रचना और श्रीमन्दिरके मार्जन आदि सेवाओंमें स्वयं नियुक्त रहते हैं तथा (अनुगत) भक्तजनको नियुक्त करते हैं, मैं उन्हीं श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी वन्दना करता हूँ।

    चतुर्विध-श्रीभगवत्प्रसाद
    स्वाद्वन्नतृप्तान् हरिभक्तसङ्घान् ।
    कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥४॥

    जो श्रीकृष्णभक्त-वृन्दको चर्व्य, चुष्य, लेह्य और पेय-इन चतुर्विध रस-समन्वित सुस्वादु महाप्रसादान्न द्वारा परितृप्त कर (अर्थात् प्रसाद-सेवनके द्वारा प्रपञ्चनाश और प्रेमानन्दका उदय करवाकर) स्वयं तृप्ति लाभ करते हैं, उन्हीं श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी मैं वन्दना करता हूँ।

    श्रीराधिका-माधवयोरपार
    माधुर्य्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् ।
    प्रतिक्षणास्वादन लोलुपस्य
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥५॥

    जो राधामाधवके अनन्त माधुर्यमय नाम, रूप, गुण और लीला समूहका आस्वादन करनेके लिए सर्वदा लुब्धचित्त हैं, उन्हीं श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी मैं वन्दना करता हूँ।

    निकुञ्जयूनो रतिकेलिसिद्धै
    यां यालिभिर्युक्तिरपेक्षणीया ।
    तत्रातिदाक्ष्यादतिवल्लभस्य
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥६॥

    निकुञ्ज बिहारी 'ब्रज-युव-द्वन्द्व' के रतिक्रीड़ा-साधनके निमित्त सखियाँ जिन युक्तियोंका अवलम्बन करती हैं, उस विषयमें अति निपुण होनेके कारण जो उनके अतिशय प्रिय हैं, उन्हीं श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी मैं वन्दना करता हूँ।

    साक्षाद्धरित्वेन समस्तशास्त्रै
    रुक्तस्तथा भाव्यत एव सद्भिः ।
    किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥७॥

    निखिल शास्त्रोंने जिनका साक्षात् हरिके अभिन्न-विग्रहरूपसे गान किया है एवं साधुजन भी जिनकी उसी प्रकारसे चिन्ता किया करते हैं, तथापि जो प्रभु भगवानके एकान्त प्रिय हैं, उन्हीं (भगवान्के अचिन्त्य-भेदाभेद-प्रकाश-विग्रह) श्रीगुरुदेवके पादपद्मोंकी मैं वन्दना करता हूँ।

    यस्य प्रसादाद्भगवत्प्रसादोः
    यस्याप्रसादान्न गतिः कुतोऽपि ।
    ध्यायंस्तुवंस्तस्य यशस्त्रिसन्ध्यं
    वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥८॥

    एकमात्र जिनकी कृपा द्वारा ही भगवद्-अनुग्रह लाभ होता है, जिनके अप्रसन्न होनेसे जीवोंका कहीं भी निस्तार नहीं है, मैं त्रिसन्ध्या उन्हीं श्रीगुरुदेवकी कीर्ति्त समूहका स्तव और ध्यान करते-करते उनके पादपद्मोंकी वन्दना करता हूँ।

    श्रीमद्गुरोरष्टकमेतदुच्चै-
    र्ब्राह्मे मुहूर्त्ते पठति प्रयत्नात् ।
    यस्तेन वृन्दावन-नाथ साक्षात्
    सेवैव लभ्या जनुषोऽन्त एव ॥९॥

    जो व्यक्ति इस गुरुदेवाष्टकका ब्राह्म मुहूर्त्तमें (अरुणोदयसे चार दण्ड पहले) अतिशय यत्नके साथ उच्चस्वरसे पाठ करते हैं, वे वस्तु-सिद्धिके समय वृन्दावनचन्द्रका सेवाधिकार प्राप्त करते हैं।


    श्रीप्रभुपादपद्म-स्तवकः

    श्रील भक्तिरक्षक-श्रीधर गोस्वामी महाराज-विरचितम्‌

    सुजनार्बुदराधितपादयुगं
    युगधर्मधुरन्धर पात्रवरम् ।
    वरदाभयदायक-पूज्यपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादम् ॥१॥

    मैं कोटि-कोटि सज्जनोंके द्वारा आराधित, कृष्ण सङ्कीर्त्तन युग-धर्मके संस्थापक, विश्ववैष्णव राजसभाके पात्रराज अर्थात् अधिकारीवर्गमें श्रेष्ठतम, निखिल जीवोंके भय दूर करनेवालोंकी भी मनोकामना पूर्ण करनेवाले, सर्वपूज्य उन श्रील प्रभुपादके श्रीचरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    भजनोर्जितसज्जनसङ्घपतिं
    पतिताधिककारुणिकैकगतिम् ।
    गतिवञ्चितवञ्चकाचिन्त्यपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥२॥

    जो भजन-सम्पन्न सज्जन-वृन्दोंके अधिपति हैं, जो पतितजनोंके प्रति अति करुणामय तथा उनकी एकमात्र गति हैं एवं जो वञ्चकोंके भी वञ्चक हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके अचिन्त्य चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    अतिकोमलकाञ्चनदीर्घतनुं
    तनुनिन्दितहेममृणालमदम् ।
    मदनार्बुदवन्दितचन्द्रपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥३॥

    अतिकोमल काञ्चनवर्णवाले सुदीर्घ तनु जिसके द्वारा स्वर्णमय कमलनालोंकी मत्तता (सौन्दर्य) भी निन्दित होती है, जिन नख-चन्द्रोंकी वन्दना कोटि-कोटि कामदेव करते हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    निजसेवकतारकरञ्जिविधुं
    विधूताहितहुङ्कृतसिंहवरम् ।
    वरणागतबालिश-शन्दपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥४॥

    जो नक्षत्र-मण्डलको रंजित करनेवाले चन्द्रकी तरह सेवक-मण्डली द्वारा परिवेष्टित होकर उनके चित्तको प्रफुल्लित रखते हैं, भक्तिविद्वेषिजन जिनके सिंहनादसे भयभीत रहते हैं एवं निरीह व्यक्ति जिनके चरणकमलोंका आश्रय ग्रहणकर परम कल्याण लाभ करते हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    विपुलीकृतवैभवगौरभुवं
    भुवनेषु विकीर्ति्तत गौरदयम् ।
    दयनीयगणार्पित-गौरपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥५॥

    जिन्होंने श्रीगौरधामका (श्रीनवद्वीपधामका) विपुल ऐश्वर्य प्रकटित किया है, जिन्होंने श्रीगौराङ्गदेवकी महोदारताकी कथाओंका सम्पूर्ण विश्वमें प्रचार किया है एवं जिन्होंने अपने कृपापात्रोंके हृदयमें श्रीगौरपादपद्मकी स्थापना की है, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    चिरगौरजनाश्रयविश्वगुरुं
    गुरु-गौरकिशोरक-दास्यपरम् ।
    परमादृतभक्तिविनोदपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥६॥

    जो चैतन्यमहाप्रभुके आश्रितजनोंके नित्य आश्रयस्थल और जगद्गुरु हैं, जो अपने गुरु श्रीगौरकिशोरके सेवापरायण हैं एवं जो श्रीभक्तिविनोद ठाकुरके सम्बन्धमात्रसे ही परम आदरयुक्त हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    रघुरूपसनातनकीर्ति्तधरं
    धरणीतलकीर्ति्ततजीवकविम् ।
    कविराज नरोत्तमसख्यपदमं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥७॥

    जो श्रीरूप, सनातन और रघुनाथके कीर्ति्तरूपी झण्डेका उत्तोलनकर विराजमान हैं, अनेक लोग इस धरणीतलपर जिन्हें पाण्डित्य-प्रतिभामय जीव गोस्वामीसे अभिन्न तनु कहकर उनकी प्रशंसा किया करते हैं एवं जिनका श्रीलकृष्णदास कविराज तथा ठाकुर नरोत्तमसे सख्यभाव है, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    कृपया हरिकीर्त्तनमूर्ति्तधरं
    धरणीभरहारक-गौरजनम् ।
    जनकाधिकवत्सल स्निग्धपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥८॥

    जीवोंके प्रति असीम कृपाकर जो मूर्ति्तमान हरिकीर्त्तनरूपमें प्रकाशित हैं, जो धरणीके पापभारको दूर करनेवाले गौरपार्षद हैं एवं जो जीवोंके प्रति पितासे भी अधिक वात्सल्यके सुकोमल आकरस्वरूप हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    शरणागतकिङ्करकल्पतरुं
    तरुधिक्कृतधीरवदान्यवरम् ।
    वरदेन्द्रगणार्चितदिव्यपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादपदम् ॥९॥

    शरणागत किङ्करोंके लिए (अभीष्ट प्रदान करनेमें) जो कल्पतरुके समान हैं, जिनकी सहिष्णुता और उदारता वृक्षोंको भी लज्जित करती हैं एवं वरदाताओंमें श्रेष्ठ व्यक्ति भी जिनके दिव्य श्रीचरणकमलोंकी पूजा किया करते हैं, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    परहंसवरं परमार्थपतिं
    पतितोद्धरणे कृतवेशयतिम् ।
    यतिराजगणैः परिसेव्यपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादम् ॥१०॥

    जो परमहंसकुलके चूड़ामणि हैं, जो परम पुरुषार्थ श्रीकृष्णपे्रम-सम्पत्तिके मालिक हैं, पतित जीवोंके उद्धारके लिए जिन्होंने संन्यासीका वेश धारण किया है एवं श्रेष्ठ त्रिदण्डि संन्यासियोंका समूह जिनके पादपद्मोंकी सेवा करता है, मैं उन श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।

    वृषभानुसुतादयितानुचरं
    चरणाश्रित रेणुधरस्तमहम् ।
    महदद्भुतपावनशक्तिपदं
    प्रणमामि सदा प्रभुपादम् ॥११॥

    जो वृषभानुनन्दिनीके परमप्रिय अनुचर हैं, जिनकी चरण-रजको मैं अपने मस्तकपर धारण करनेके सौभाग्यके लिए अभिमान करता हूँ, उन अद्भुत पावनीशक्तिसम्पन्न श्रीलप्रभुपादके चरणकमलोंमें मैं सदा-सर्वदा प्रणाम करता हूँ।


    श्रीषड्‌गोस्वाम्यष्टकम्‌

    श्रील श्रीनिवासाचार्य विरचितम्‌

    कृष्णोत्कीर्तन-गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भोनिधी
    धीराधीरजन-प्रियौ  प्रियकरौ  निर्मत्सरौ पूजितौ ।
    श्रीचैतन्य-कृपाभरौ भुवि भुवो भारावहन्तारकौ
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥१॥

    मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथभट्ट, रघुनाथदास, श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीकृष्णके नाम-रूप-गुण-लीलाओंके कीर्तन, गायन एवं नृत्यपरायण थे; प्रेमामृतके समुद्रस्वरूप थे, विद्वान् एवं अविद्वान्रूप सर्वसाधारण जनमात्रके प्रिय थे तथा सभीके प्रियकार्योंको करनेवाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेवकी अतिशय कृपासे युक्त थे, भूतलमें भक्तिका विस्तार करके भूमिका भार उतारनेवाले थे।

    नानाशास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्धर्म-संस्थापकौ
    लोकानां हितकारिणौ त्रिभुवने मान्यौ शरण्याकरौ ।
    राधाकृष्ण-पदारविन्द-भजनानन्देन मत्तालिकौ
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥२॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो अनेक शास्त्रोंके गूढ़तात्पर्य विचार करनेमें परमनिपुण थे, भक्तिरूप-परमधर्मके संस्थापक थे, जनमात्रके परमहितैषी थे, तीनों लोकोंमें माननीय थे, शरणागतवत्सल थे एवं श्रीराधाकृष्णके पदारविन्दके भजनरूप आनन्दसे मत्तमधुपके समान थे।

    श्रीगौरांग-गुणानुवर्णन-विधौ श्रद्धा-समृद्धय्न्वितौ
    पापोत्ताप-निकृन्तनौ तनुभृतां गोविन्द-गानामृतैः ।
    आनन्दाम्बुधि-वर्धनैक-निपुणौ कैवल्य-निस्तारकौ
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥३॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो श्रीगौराङ्गदेवके गुणानुवादकी विधिमें श्रद्धारूप-सम्पत्तिसे युक्त थे, श्रीकृष्णके गुणगानरूप-अमृतकी वृष्टिके द्वारा प्राणीमात्रके पाप-तापको दूर करनेवाले थे तथा आनन्दरूप-समुद्रको बढ़ानेमें परमकुशल थे, भक्तिका रहस्य समझाकर, मुक्तिकी भी मुक्ति करनेवाले थे।

    त्यक्त्वा तूर्णमशेष-मण्डलपति-श्रेणीं सदा तुच्छवत्
    भूत्वा दीनगणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ ।
    गोपीभाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहु-
    र्वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥४॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो समस्त मण्डलोंके आधिपत्यकी श्रेणीको, लोकोत्तर वैराग्यसे शीघ्र ही तुच्छकी तरह सदाके लिए छोड़कर, कृपापूर्वक अतिशय दीन होकर, कौपीन एवं कंथा (गूदड़ी) को धारण करनेवाले थे तथा गोपीभावरूप रसामृतसागरकी तरंगोंमें आनन्दपूर्वक निमग्न रहते थे।

    कूजत्-कोकिल-हंस-सारस-गणाकीर्णे मयूराकुले
    नानारत्न-निबद्ध-मूल-विटप-श्रीयुक्त-वृन्दावने ।
    राधाकृष्णमहर्निशं प्रभजतौ जीवार्थदौ यौ मुदा
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥५॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो कलरव करनेवाले कोकिल-हंस-सारस आदि पक्षिओंकी श्रेणीसे व्याप्त एवं मयूरोंके केकारवसे आकुल, तथा अनेक प्रकारके रत्नोंसे निबद्ध मूलवाले वृक्षोंके द्वारा शोभायमान श्रीवृन्दावनमें, रातदिन श्रीराधाकृष्णका भजन करते रहते थे तथा जीवमात्रके लिए हर्षपूर्वक भक्तिरूप परमपुरुषार्थ देनेवाले थे।

    संख्यापूर्वक-नामगाननतिभिः कालावसानीकृतौ
    निद्राहार-विहारकादि-विजितौ चात्यन्त-दीनौ च यौ ।
    राधाकृष्ण-गुणस्मृतेर्मधुरिमानन्देन सम्मोहितौ
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥६॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो अपने समयको संख्यापूर्वक नाम-जप, नामसंकीर्तन एवं संख्यापूर्वक प्रणाम आदिके द्वारा व्यतीत करते थे; जिन्होंने निद्रा-आहार-विहार आदिपर विजय प्राप्तकरली थी एवं जो अपनेको अत्यन्त दीन मानते थे तथा श्रीराधाकृष्णके गुणोंकी स्मृतिसे प्राप्त माधुर्यमय आनन्दके द्वारा विमुग्ध रहते थे।

    राधाकुण्ड-तटे कलिन्द-तनया-तीरे च वंशीवटे
    प्रेमोन्माद-वशादशेष-दशया ग्रस्तौ प्रमत्तौ सदा ।
    गायन्तौ च कदा हरेर्गुणवरं भावाभिभूतौ मुदा
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥७॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो प्रेमोन्मादके वशीभूत होकर, विरहकी समस्त दशाओंके द्वारा ग्रस्त होकर, प्रमादीकी भाँति, कभी राधाकुण्डके तटपर, कभी युमनाके तटपर एवं कभी वंशीवटपर सदैव घूमते रहते थे; और कभी-कभी श्रीहरिके गुणश्रेष्ठोंको हर्षपूर्वक गाते हुए भावमें विभोर रहते थे।

    हे राधे! व्रजदेविके! च ललिते! हे नन्दसूनो! कुतः
    श्रीगोवर्धन-कल्पपादप-तले कालिन्दिवन्ये कुतः ।
    घोषन्ताविति  सर्वतो  व्रजपुरे  खेदैर्महाविह्वलौ
    वन्दे रूप-सनातनौ रघुयुगौ श्रीजीव-गोपालकौ ॥८॥

    मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियोंकी वन्दना करता हूँ कि, जो "हे व्रजकी पूजनीय देवि! राधिके! आप कहाँ हो? हे ललिते! आप कहाँ हो? हे व्रजराजकुमार! आप कहाँ हो? श्रीगोवर्धनके कल्पवृक्षोंके नीचे बैठे हो अथवा कालिन्दीके कमनीय कूलपर विराजमान वन समूहमें भ्रमण कर रहे हो क्या?" इस प्रकार पुकारते हुए विरहजनित पीड़ाओंसे महान विह्वल होकर, व्रजमण्डलमें चारों ओर भ्रमण करते थे।


    श्रीगदाधराष्टकम्‌

    श्रील स्वरूप दामोदर

    स्वभक्तियोग-लासिनं सदा व्रजे विहारिणं
    हरि-प्रिया-गणाग्रगं शचीसूत-प्रियेश्वरम् ।
    सराधा-कृष्णसेवन-प्रकाशकं महाशयं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥१॥

    जो अपनी भक्तियोगमें विलास करते हुए सदैव ब्रजमें भ्रमण करते हैं, हरिप्रियाओंमें अग्रगण्य (श्रेष्ठ) हैं, श्रीशचीसुतके प्रियजनोंमें श्रेष्ठ हैं, श्रीराधाजीके साथ श्रीकृष्णकी सेवाके प्रकाशक हैं, उन महात्मा, सुपण्डित, गुरु श्रील गदाधर प्रभुका मैं भजन करता हूँ।

    नवोज्ज्वलादि-भावना-विधान-कर्म पारगं
    विचित्र-गौर-भक्ति-सिन्धु-रसभङ्ग-लासिनम् ।
    सुराग-मार्ग-दर्शकं व्रजादि-वास-दायकं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥२॥

    जो नित्यनव-उज्ज्वल आदि रस-भावना विधान-क्रियामें पारङ्गत हैं, विचित्र गौरभक्ति-सिन्धुकी रस-ऊर्मि (रसकी तरंगें) में विलासरत हैं, सर्वोत्तम रागमार्गके प्रदर्शक हैं, ब्रज आदि धाम-वासका अधिकार प्रदानकारी हैं, इस प्रकार सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका मैं भजन करता हूँ।

    शचीसूतांघ्रिसार-भक्तवृन्दवन्द्य-गौरवं
    गौरभाव-चित्तपद्म-मध्य-कृष्ण-सुवल्लभम् ।
    मुकुन्दगौररूपिणं स्वभावधर्मदायकं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥३॥

    जो श्रीशचीसुत-पादपद्मोंमें ऐकान्तिक आश्रित भक्तोंकी वन्दनीय एवं गौरवकी वस्तु हैं, श्रीगौरहरिके भावरूप-चित्तपद्ममें विराजमान श्रीकृष्ण ही जिनके प्राणवल्लभ हैं, श्रीगौररूपी कृष्णको जो अपनी हृदयके भावरूप धर्म प्रदानकारी हैं, मैं ऐसे ही सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका भजन करता हूँ।

    निकुञ्ज-सेवनादिक-प्रकाशनैक-कारणं
    सदा सखीरति-प्रदं महारस-स्वरूपकम् ।
    सदाश्रितांघ्रि-पुण्डरीक-प्रदं सद्‌गुरु वरं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥४॥

    जो निकुञ्ज-प्रेमसेवा आदि प्रकाशक एकमात्र कारण हैं, सदैव सखीरति प्रदानकारी एवं महारस स्वरूप हैं, जो सदैव  आश्रितोंको अपने चरणकमल प्रदानकारी सद्‌गुरुवर्य हैं, मैं ऐसे ही सुपण्डित एव गुरु श्रील गदाधर प्रभुकी वन्दना करता हूँ।

    महाप्रभोर्महारस-प्रकाशनांकुरं प्रियं सदा
    महारसांकुर-प्रकाशनादि-वासनम् ।
    महाप्रभोव्रजाङ्गनादि-भाव-मोद-कारकं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥५॥

    जो श्रीमन्महाप्रभुके महारस प्रकाशके प्रिय अंकुर-स्वरूप हैं, महारस अंकुर प्रकाशमें सदैव वासनायुक्त हैं एवं महाप्रभुके ब्रजाङ्गना आदि भाव आस्वादनमें अनुमोदनकारी हैं, मैं ऐसे ही सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका भजन करता हूँ।

    द्विजेन्द्र-वृन्द-वन्द्य-पादयुग्म-भक्ति-वर्द्धकं
    निजेषु राधिकात्मता-वपुःप्रकाशनाग्रहम् ।
    अशेष-भक्तिशास्त्र-शिक्षयोज्ज्वलामृत-प्रदं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥६॥

    जो द्विजेन्द्रोंके नित्य वन्दनीय श्रीहरिके चरणयुगलमें भक्ति-वर्द्धनमें समर्थ हैं, निजगणमें अपने राधिकात्मक विग्रह प्रकाशमें आग्रही हैं, अशेष भक्ति-शास्त्र-शिक्षाके उज्ज्वलरसामृत प्रदानकारी हैं, मैं ऐसे ही सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका भजन करता हूँ।

    मुदा निज प्रियादिक-स्वपादपद्म-सीधुभि-
    र्महारसार्णवामृत-प्रदेष्ट-गौरभक्तिदम् ।
    सदाष्ट-सात्त्विकान्वितं निजेष्ट-भक्ति-दायकं
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥७॥

    जो आनन्दसहित अपने-प्रियवर्गको अपने पाद-पद्म मकरन्द (मधु) सह महारससिन्धुजात अमृत एवं निज-अभीष्ट गौरभक्ति प्रदान करते हैं, सदैव अष्ट-सात्त्विक-भावमें रहते हैं एवं अपनी इष्ट भक्तिदाता हैं—मैं ऐसे सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका भजन करता हूँ।

    यदीय-रीतिराग-रङ्गभङ्ग-दिग्ध-मानसो
    नरोऽपि याति तूर्णमेव नार्यभाव-भाजनम् ।
    तमुज्ज्वलाक्त-चित्तमेतु चित्त-मत्त-षट्‌पदो-
    भजाम्यहं गदाधरं सुपण्डितं गुरुं प्रभुम् ॥८॥

    जिनका रीतिराग-रङ्ग-तरङ्गमें प्लावितमना व्यक्ति शीघ्र ही नारी अर्थात् व्रजवधू-भावभाजन होते हैं एवं उनके चित्तरूप मत्त-भ्रमर उस उज्ज्वल-रसात्मक चित्तको प्राप्त होता है, मैं ऐसे सुपण्डित एवं गुरु श्रील गदाधर प्रभुका भजन करता हूँ।

    महारसामृत-प्रदं सदा गदाधराष्टकं पठेत्तु
    यः सुभक्तितो व्रजाङ्गना-गणोत्सवम् ।
    शचीतनूज-पादपद्म-भक्तिरत्न-योग्यतां
    लभेतराधिका-गदाधरांघ्रि-पद्म-सेवया ॥९॥

    जो ब्रजाङ्गनाओंका उत्सवरूप महारसामृतप्रद इस गदाधराष्टकका अत्यन्त भक्तिसहित सदैव पाठ करते हैं, वे श्रीमती राधिकाभिन्न श्री गदाधर-पादपद्म-सेवा द्वारा श्रीशचीनन्दन-पादपद्मोंमें भक्तिरत्न प्राप्तिकी योग्यता अर्जन करते हैं।

    (श्रीश्रीभागवात-पत्रिका २.२)


    श्रीशचीशुन्वष्टकम्

    श्रील रघुनाथदासगोस्वामीपाद विरचितम्‌

    हरिर्दृष्ट्‌वा गोष्ठे मुकुर-गतमात्मानसतुलं
    स्वमाधुर्ये राधाप्रियतरसखी वाप्तुमभितः ।
    अहो गौड़े जातः प्रभुरपरगौरेक-तनुभाक्
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥१॥

    जिस हरि (कृष्ण) ने दर्पणमें अपने अतुलनीय सुन्दर अङ्गोको निरख कर प्रियतमा सखी श्रीमती राधिकाकी तरह सब तरहसे अपने माधुर्यको स्वयं अनुभव करनेके लिये गौड़ देशमें जन्म लिया था, अहो! (क्या ही आश्चर्यकी बात है,) जिस प्रभुने श्रीमती राधिकाकी गौर-कान्तिको स्वयं अपने शरीरकी सुन्दर गौर-कान्तिके रूपमें ग्रहण किया था, वे शचीनन्दन श्रीगौरहरि क्या पुनः मेरे नयन-पथ पर मिल सकेंगे?

    पुरीदेवस्यान्तः प्रणय मधुना स्नानमधुरो
    मुहुर्गोविन्दोद्यद्विशद-परिचर्याचितपदः ।
    स्वरूपस्य प्राणार्व्वुद-कमल-निराजितमुखः
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥२॥

    जो श्रीईश्वरपुरी गोस्वामीके अन्तःकरणमें विराजित प्रेम-मधुद्वारा स्नात होकर उनके प्रति प्रीतिसे युक्त हुए थे, जिनके युगल चरणकमल गोविन्द नामक किसी प्रेमी भक्तकी निर्मल परिचर्या द्वारा सेवित होते थे, तथा जिनका श्रीमुखमण्डल श्रीस्वरूप गोस्वामीके असंख्य प्राण-रूपी कमलके पुष्पोंसे निरन्तर नीराजित होता था, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः मेरे नयन-पथ पर मिल सकेंगे?

    दधानः कौपीनं तदुपरि वहिर्वस्त्रमरुणं
    प्रकाण्डो हेमाद्गि द्युतिभिरभितः सेविततनुः ।
    मुदा गायन्नुच्चैर्निजमधुर-नामावलिमसौ
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥३॥

    परमब्रह्म परमेश्वर होकर भी जो भक्तोंको शिक्षा प्रदान करनेके लिये स्वयं कौपीन और उसके ऊपर अरुण-रंगका वहिर्वास धारण करते थे, जिनका शरीर अत्यन्त प्रकाण्ड और सुमेरु पर्वतकी कान्ति द्वारा पूर्णरूपेण सेवित था अर्थात् जिनके तपाये हुए सोनेके समान शरीरकी कान्तिको देख कर सुमेरु पर्वत अपनी सुन्दरताका अभिमान छोड़ कर अपनी कान्तिसे (कान्तियुक्त अङ्गसे) जिनके अङ्गकी कान्तिकी सेवा की थी और जो संन्यासीका वेश धारण कर जोर-जोरसे अपने नाम-समूहका आनन्दमें विभोर होकर कीर्त्तन करते हुए भक्त-भावमें भ्रमण किये थे, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दर्शन देंगे?

    अनावेद्यां पूर्वैरपि मुनिगणैर्भक्ति-निपुणैः
    श्रुतेर्गूढ़ां प्रेमोज्ज्वलरस-फलां भक्तिलतिकाम् ।
    कृपालुस्तां गौड़े प्रभुरतिकृपाभिः प्रकटयन्
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥४॥

    भक्तिमें अतिशय निपुण होने पर भी पूर्व-पूर्व मुनिजन जिनके सम्बन्धमें यथार्थ ज्ञान लाभ नहीं कर सके थे, श्रुतियोंने जिन्हें अमूल्य रत्नकी तरह छिपा कर रखा था, जो असीम कृपा द्वारा गौड़देशमें भक्तिलताका—जिसका फल उज्ज्वल प्रेम-रस है—विस्तार कर परम कृपालु (सिद्ध) हुए थे, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दर्शन देंगे?

    निजत्वे गौड़ीयान् जगति परिगृह्य प्रभुरिमान्
    हरेकृष्णेत्येवं गणन-विधिना कीर्त्तयत भोः ।
    इतिप्रायां शिक्षां जनक इव तेभ्यः परिदिशन्
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥५॥

    हे मन! जिन्होंने मेरे स्मरण-पथमें सदा विराजमान् गौड़ीयजनोंको संसारमें आत्मीय मान कर उनके द्वारा ‘हरे कृष्ण’—इस हरिनामका संख्यापूर्वक कीर्त्तन करवाया था और जिन्होंने गौड़ देशीय जन-समुदायको पिताकी तरह प्रिय शिक्षा प्रदान किया था, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दर्शन देंगे?

    पुरः पश्यन् नीलाचलपतिमुरुप्रेम-निवहैः
    क्षरन्नेत्राम्भोभिः स्नपित निजदीर्घोज्ज्वल तनुः ।
    सदा तिष्ठन् देशे प्रणयि-गरुड़स्तंभ-चरमे
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥६॥

    जो प्रणयी गरुड़ स्तंभके पीछे सदा खड़े रह कर सामने (सिंहासन पर विराजमान) नीलाचलपति श्रीश्रीजगन्नाथदेवका दर्शन कर महाप्रेम-समूह द्वारा अपनी आँखोंसे बहती हुई अश्रुधारासे अपने परम सुन्दर और दीर्घ कलेवरको नहलाया करते थे, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दृष्टि गोचर होंगे?

    मुदा दन्तैर्दष्टा द्युतिविजित-वन्धुकमधरं
    करं कृत्वा वामं कटि-निहितमन्यं परिलसन् ।
    समुत्थाप्य प्रेम्ना गणित पुलको नृत्यकौतुकी
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥७॥

    जिन अधरोंकी कान्ति बन्धूक-पुष्पकी लालिमाको भी मात करती थी; अपने उन लाल-लाल अधरोंको दाँतोंसे पकड़ कर और बाँयें हाथको कमर पर रखकर जो दूसरे दाहिने हाथको उठाकर भिन्न-भिन्न भङ्गियोंसे घूमाते हुए अतिशय आनन्दके साथ नृत्य-कौतुकमें मग्न हो जाया करते थे तथा जो माथुर-विरहिणी श्रीमती राधिकाके भावोंसे विभावित होकर असंख्य रोमांच धारण करते थे, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दृष्टिगोचर होंगे?

    सरित्तीरारामे विरह-विधुरो गोकुलविधो-
    र्नदीमन्यां कुर्वन्नयन-जलधाराविततिभिः ।
    मुहुर्मुर्च्छां गच्छन्मृतकमिव विश्वं विरचयन्
    शचीसूनुः किं मे नयनशरणीं यास्यति पुनः ॥८॥

    जिन्होंने नदीके तटवर्ती उपवनमें गोकुलचन्द्र—श्रीकृष्णके विरहमें व्याकुल होकर अपनी अविरल निकलती हुई अश्रुधाराओंसे एक दूसरी सरिताका निर्माण किया था, तथा बार-बार मूर्च्छित होकर वहाँ उपस्थित जन-समूहको मृतके समान अचेतन बना दिया था, वे शचीनन्दन गौरहरि क्या पुनः दर्शन देंगे?

    शचीसूनोरस्याष्टकमिदमभीष्टं विरचयत्
    सदादैन्योद्रेकादतिविशद-बुद्धिः पठति यः ।
    प्रकामं चैतन्यः प्रभुरतिकृपावेशविवशः
    पृथु प्रेमाम्भोधौ प्रथितरसदे मज्जयति तम् ॥९॥

    जो व्यक्ति शुद्ध अन्तःकरणसे अतिशय दीनतापूर्वक अपने अभीष्टप्रद श्रीशचीनन्दनके इस अष्टकका पाठ करते हैं, उनको शचीनन्दन कृपा करके श्रीकृष्ण सम्बन्धी रसास्वादनरूप अगाध प्रेम-समुद्रमें निमज्जित कर देते हैं।

    (श्रीश्रीभागवात-पत्रिका ४२.१२)


    श्रीराधिकाष्टकम् (२)

    श्रील रघुनाथदासगोस्वामीपाद विरचितम्‌

    रसवलित-मृगाक्षी-मौलिमाणिक्यलक्ष्मीः
    प्रमुदित-मुरवैरि-प्रेमवापी-मराली ।
    व्रजवर-वृषभानोः पुण्यगीर्वाणवल्ली
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥१॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो रसिकस्त्रियोंके मुकुटस्थ मणियोंकी शोभास्वरूपा हैं एवं जो हर्षित हुए श्रीकृष्णके प्रेमरूप-सरोवरकी हंसीस्वरूपा हैं तथा जो व्रजमें सर्वश्रेष्ठ श्रीवृषभानु गोपराजके पुण्यकी कल्पलतास्वरूपा हैं।

    स्फुरदरुण-दुकूल-द्योतितोद्यन्नितम्ब-
    स्थलमभि-वरकाञ्चि-लास्यमुल्लासयन्ती ।
    कुचकलस-विलास-स्फीत-मुक्तासर-श्रीः
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥२॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो देदीप्यमान रक्तवर्णके रेशमी वस्त्रसे सुशोभित अपने नितंबस्थलपर, श्रेष्ठ करधनीसे नृत्यको प्रकाशित करती हुईं, अपने कुचरूप-कलसोंके ऊपर शोभायमान स्थूल मुक्ताहारको शोभासे युक्त हैं।

    सरसिजवर-गर्भाखर्व-कान्तिः समुद्यत्-
    तरुणिम-घनसाराश्लिष्ट-कैशोर-सधुः ।
    दर-विकसित-हास्य-स्यन्दि-बिम्बाधराग्रा
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥३॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो श्रेष्ठकमलकी कर्णिकाके समान विशाल कान्तिसे युक्त हैं एवं जिनका किशोरावस्थारूप-अमृत, प्रगट होनेवाली युवावस्थारूप-कर्पूरसे मिश्रित है तथा जिनके बिंबाधरका अग्रभाग किंचित् विकसित हास्यरसका विस्तार करता रहता है।

    अति-चटुलतरं तं काननान्तर्मिलन्तं
    व्रजनृपति-कुमारं वीक्ष्य शङ्काकुलाक्षी ।
    मधुर-मृदु-वचोभिः संस्तुता नेत्रभङ्ग्या
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥४॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जिनके दोनों नेत्र, वनमें मिलते हुए अतिशय चंचल, ब्रजराजकुमार श्रीकृष्णको देखकर, शङ्कासे व्याकुल हो जाते हैं एवं जो मधुर तथा कोमल-वचनोंके द्वारा और नेत्रोंके संकेतके द्वारा, परिचित हो जाती हैं।

    व्रजकुल-महिलानां प्राणभूताखिलानां
    पशुप-पति-गृहिण्याः कृष्णवत् प्रेमपात्रम् ।
    सुललित-ललितान्तःस्नेह-फुल्लान्तरात्मा
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥५॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो समस्त ब्रजाङ्गनाओंकी प्राणस्वरूपा हैं एवं जो गोपराजपत्नी-श्रीयशोदाकी श्रीकृष्णके समान स्नेहभाजन हैं तथा जिनकी अन्तरात्मा, ललिता-सखीके सुमनोहर आन्तरिक स्नेहसे, फूली नहीं समाती हैं।

    निरवधि सविशाखा शाखियूथ-प्रसूनैः
    स्रजमिह रचयन्ती वैजयन्तीं वनान्ते ।
    अघ-विजय-वरोरःप्रेयसी श्रेयसी सा
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥६॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो श्रीवृन्दावनमें सदैव साथ रहनेवाली, विशाखा-सखीके सहित; अनेक वृक्षोंके पुष्पों द्वारा, वैजयन्तीमालाको बनाती हुई विद्यमान रहती हैं, अतएव अघविजयी-श्रीकृष्णके श्रेष्ठ वक्षःस्थलकी अतिशय प्यारी हैं एवं परम मङ्गलमयी हैं।

    प्रकटित-निजवासं स्निग्ध वेणु-प्रणादै-
    र्द्रुतगति हरिमारात् प्राप्य कुञ्जे स्मिताक्षी ।
    श्रवण-कुहर-कण्डूं तन्वती नम्रवक्त्रा
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥७॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जिनके नेत्र, स्निग्ध बंशीकी ध्वनियोंके द्वारा, निकुञ्जमें अपनी स्थितिको प्रकाशित करनेवाले, श्रीकृष्णको शीघ्र गतिसे प्राप्तकर, किंचित् विकसित हो जाते हैं एवं किसी बहानेसे, अपने कर्णछिद्रको खुजाती हुईं, अपने मुखको नीचा कर लेती हैं।

    अमल-कमल-राजि-स्पर्शि-वात-प्रशीते
    निजसरसि निदाघे सायमुल्लासिनीयम् ।
    परिजन-गण-युक्ता क्रीडयन्ती बकारिं
    स्नपयति निजदास्ये राधिका मां कदा नु ॥८॥

    वे श्रीमती राधिका, मुझको अपनी सेवामें कब स्नान करायेंगी अर्थात् निमग्न करेंगी? जो ग्रीष्मऋतुमें सायंकालके समय, उल्लाससे युक्त होकर तथा ललिता आदि अपने सेवकवर्गसे सम्मिलित होकर, निर्मल कमलश्रेणीको स्पर्श करनेवाली वायुके कारण, अतिशय शीतल, राधाकुण्ड-नामक अपने सरोवरमें, श्रीकृष्णको क्रीड़ा कराती रहती हैं।

    पठति विमलचेता मृष्टराधाष्टकं यः
    परिहृत-निखिलाशा-सन्ततिः कातरः सन् ।
    पशुप-पति-कुमारः काममामोदितस्तं
    निजजन-गणमध्ये राधिकायास्तनोति ॥९॥

    निर्मल चित्तवाला जो व्यक्ति, अन्य समस्त आशाओंकी श्रेणीको छोड़कर, कातर होकर, इस विशुद्ध "राधिकाष्टक" का पाठ करता है, उस व्यक्तिको गोपराजकुमार श्रीकृष्ण, यथेष्ट प्रसन्न होकर, श्रीमती राधिकाके अपने परिकरवर्गमें सम्मिलित कर लेते हैं। इस अष्टकमें "मालिनी" नामक छन्द है।


    श्रीजगन्नाथाष्टकम्

    श्रीचैतन्य महाप्रभु द्वारा कीर्त्तित

    कदाचित् कालिन्दीतट-विपिन-सङ्गीत-तरलो
    मुदाभीरीनारी-वदनकमलास्वाद-मधुपः  ।
    रमा-शम्भु-ब्रह्मामरपति-गणेशार्चितपदो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥१॥

    कभी-कभी यमुनातीरस्थ श्रीवृन्दावनमें वेणुगीतमें चञ्चल, एवं गोपवनिताओंके मुखकमलके आनन्दपूर्वक आस्वादन करनेवाले भ्रमरस्वरूप तथा लक्ष्मी-शिव-ब्रह्मा-इन्द्र एवं गणेश आदि देवताओंके द्वारा जिनके श्रीचरण पूजित होते रहते हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं कटितटे
    दुकूलं  नेत्रान्ते  सहचरि-कटाक्षं  विदधते ।
    सदा श्रीमद्वृन्दावन-वसति-लीलापरिचयो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥२॥

    बायीं भुजामें वेणु, सिरपर मोरपंख, कटितटमें पीताम्बर एवं अपने नेत्रप्रान्तमें सहचरोंके कटाक्षको धारण करनेवाले तथा श्रीवृन्दावनके निवासकी लीलाओंसे जो सदैव परिचित हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    महाम्भोधेस्तीरे कनकरुचिरे नीलशिखरे
    वसन् प्रासादान्तः सहज-वलभद्रेण बलिना ।
    सुभद्रा-मध्यस्थः  सकल-सुर-सेवावसरदो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥३॥

    महासमुद्रके तीरपर सुवर्णके समान सुन्दर नीलाचलके शिखरमें, अपने बड़ेभाई प्रबल बलदेवजीके साथ, अपने मन्दिरमें निवास करनेवाले, एवं सुभद्रा जिनके बीचमें विराजमान है तथा जो समस्त देवताओंको अपनी सेवाका अवसर देते रहते हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    कृपा-पारावारः सजल-जलद-श्रेणि-रुचिरो
    रमावाणीरामः स्फुरदमल-पंकेरुहमुखः ।
    सुरेन्द्रैराराध्यः श्रुतिगणशिखा-गीतचरितो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥४॥

    जो करुणावरुणालय हैं, सजल-जलदश्रेणीके समान श्यामसुन्दर हैं एवं रमा तथा सरस्वतीदेवीके साथ विहार करनेवाले हैं, जिनका श्रीमुख विकसित निर्मल कमलके समान है, जो समस्त देवेन्द्रोंके आराधनीय हैं, तथा जिनके दिव्यचरित्र श्रुतियोंके शिरोभागमें गाये गये हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    रथारूढो गच्छन् पथि मिलित-भूदेव पटलैः
    स्तुति  प्रादुर्भावं  प्रतिपदमुपाकर्ण्य  सदयः ।
    दयासिन्धुर्बन्धुः सकलजगतां सिन्धुसुतया
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥५॥

    रथमें बैठकर चलते समय, मार्गमें मिलनेवाले ब्राह्मणसमुदायके द्वारा, पग-पगपर अपनी स्तुतियोंके प्राकट्यको सुनकर, जो दयासे युक्त हो जाते हैं, अतएव जो दयाके सिन्धु एवं समस्त जगत्के बन्धु कहलाते हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव, श्रीलक्ष्मीदेवीके सहित मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    परंब्रह्मापीडः कुवलय-दलोत्फुल्ल-नयनो
    निवासी नीलाद्रौ निहित-चरणोऽनन्त-शिरसि ।
    रसानन्दी राधा-सरस-वपुरालिङ्गन-सुखो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥६॥

    जो मुकुटमणिस्वरूप परब्रह्म हैं, जिनके दोनों नेत्र नीलकमलदलके समान खिले हुए हैं, जो नीलाचलमें निवास करनेवाले हैं, शेषजीके सिरपर अपने चरणोंको स्थापित करनेवाले हैं, एवं भक्तिरससे ही आनन्दित होनेवाले हैं, तथा श्रीराधिकाके सरसशरीरके आलिङ्गनसे ही जिनको सुख मिलता है, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    न वै याचे राज्यं न च कनक-माणिक्य-विभवं
    न याचेऽहं रम्यां सकल-जन-काम्यां वरवधूम् ।
    सदा काले काले प्रमथपतिना गीतचरितो
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥७॥

    मैं, प्रसन्न हुए श्रीजगन्नाथदेवसे राज्य नहीं माँगता एवं सुवर्ण-मणि-माणिक्यरूप वैभवको भी नहीं माँगता तथा सकलजन वांछनीय सुन्दरीनारीको भी मैं नहीं चाहता; किन्तु जिनके चारुचरित्र शिवजीके द्वारा समय-समयपर सदैव गाये जाते हैं, वे ही श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    हर त्वं संसारं द्रुततरमसारं सुरपते!
    हर त्वं  पापानां  विततिमपरां यादवपते! ।
    अहो दीनेऽनाथे निहित-चरणो निश्चितमिदं
    जगन्नाथः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥८॥

    हे सुरपते! तुम मेरे असार-संसारको शीघ्र ही हर लो। हे यादवपते! तुम मेरे उत्कृष्ट पापोंकी श्रेणीको हर लो। अहह! जो दीन एवं अनाथके ऊपर ही अपने श्रीचरणको स्थापित करते हैं, यह जिनका निश्चित व्रत है, वे श्रीजगन्नाथदेव मेरे नेत्रमार्गके पथिक बन जायँ।

    जगन्नाथाष्टकं पुण्यं यः पठेत् प्रयतः शुचि ।
    सर्वपाप-विशुद्धात्मा विष्णुलोकं स गच्छति ॥९॥

    जो व्यक्ति पवित्र एवं सावधान होकर, पुण्यमय श्रीजगन्नाथाष्टकका पाठ करेगा, वह व्यक्ति सब पापोंसे रहित, विशुद्ध चित्तवाला होकर, विष्णुलोकको प्राप्त कर लेगा।


    श्रीचौराग्रगण्य-पुरुषाष्टकम्

    श्रीबिल्वमङ्गल ठाकुर

    व्रजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं
    गोपाङ्गनानां च दुकुलचौरम् ।
    अनेक-जन्मार्जित-पापचौरं
    चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥१॥

    व्रजमें प्रसिद्ध, माखन चुरानेवाले एवं गोपियोंके चीर चुरानेवाले, अपने आश्रितजनोंके अनेक जन्मोंके द्वारा उपार्जित पापोंको चुरानेवाले—चौराग्रगण्यपुरुषको मैं प्रणाम करता हूँ।

    श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं
    नवांबुदश्यामलकान्तिचौरम् ।
    पदाश्रितानां च समस्तचौरं
    चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥२॥

    श्रीमती राधिकाके हृदयको चुरानेवाले, नूतन-जलधारकी श्यामकान्ति चुरानेवाले एवं निजचरणाश्रितोंके समस्त पाप-ताप चुरानेवाले—चौराग्रगण्यपुरुषको मैं प्रणाम करता हूँ।

    अकिंचनीकृत्य पदाश्रितं यः
    करोति भिक्षुं पथि गेहहीनम् ।
    केनाप्यहो भीषणचौर ईदृग्
    दृष्टःश्रुतो वा न जगत्त्रयेऽपि ॥३॥

    जो अपने चरणाश्रितोंको निष्किञ्चन बनाकर, मार्गमें घूमनेवाले अनिकेत-भिक्षुक बना देता है, हाय! ऐसा भयंकर चोर तो किसीने तीनों लोकोंमें भी देखा या सुना नहीं।

    यदीय नामापि हरत्यशेषं
    गिरि प्रसारानपि पापराशीन् ।
    आश्चर्यरूपो ननु चौर ईदृग्
    दृष्टः श्रुतो वा न मया कदापि ॥४॥

    जिसका नाममात्र लेना भी, पर्वतके समान विशाल पापसमूहको भी समूल हर लेता है, ऐसे आश्चर्य रूपवाला चोर तो मैंने कभी भी कहीं देखा या सुना नहीं।

    धनं च मानं च तथेन्द्रियाणि
    प्राणांश्च हृत्वा मम सर्वमेव ।
    पलायसे कुत्र धृतोऽद्य चौर
    त्वं भक्तिदाम्नासि मया निरुद्धः ॥५॥

    हे चोर! मेरे धन-मान-इन्द्रियाँ-प्राण एवं सर्वस्वको हर कर, कहाँ भागे जा रहे हो? क्योंकि आज तो तुम भक्तिरूप-रज्जूसे धारण कर, मेरे द्वारा रोक लिए गए हो।

    छिनत्सि घोरं यमपाशबन्धं
    भिनत्सि भीमं भवपाशबन्धम् ।
    छिनत्सि सर्वस्य समस्तबन्धं
    नैवात्मनो भक्तकृतं तु बन्धम् ॥६॥

    क्योंकि तुम, यमराजके भयंकर पाशबन्धनको तो काट देते हो एवं संसारके भयंकर पाशबन्धनको विदीर्ण कर देते हो तथा सभीजनोंके समस्त बन्धनको काट देते हो; किन्तु अपने प्रेमीभक्तके द्वारा रचे गए, अपने प्रेममय बन्धनको, तो तुम नहीं काट पाते हो।

    मन्मानसे तामसराशिघोरे
    कारागृहे दुःखमये निबद्धः ।
    लभस्व हे चौर! हरे! चिराय
    स्वचौर्यदोषोचितमेव दण्डम् ॥७॥

    हे मेरा सर्वस्व चुरानेवाले चोररूप—हरे! मैंने, आज तुमको अज्ञानरूप-अन्धकार समुदायसे भयंकर एवं दुःखमय मेरे मनरूपी-कारागारमें बन्द कर लिया है; अतः अपनी चोरीरूप-दोषके उचित दण्डको ही, बहुत समयतक प्राप्त करते रहो।

    कारागृहे वस सदा हृदये मदीये
    मद्भक्तिपाशदृढबन्धननिश्चलः सन् ।
    त्वां कृष्ण हे! प्रलयकोटिशतान्तरेऽपि
    सर्वस्वचौर! हृदयान्नहि मोचयामि ॥८॥

    हे मेरा सर्वस्व चुरानेवाले कृष्ण! मेरी भक्तिरूप-पाशके दृढ़बन्धनमें निश्चल होकर, मेरे हृदयरूप-कारागारमें सदैव निवास करते रहो; क्योंकि मैं तो अपने हृदयरूप-कारागारसे, करोड़ों कल्पोंमें भी विमुक्त नहीं कस्ँगा। इस अष्टकमें "उपजाति"-नामक छन्द है।